two nation theory: दो राष्ट्र का सिद्धांत के जनक वीर सावरकर थे जाने पुरा सच ??

Shashikant kumar
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two nation theory

two nation theory:दो राष्ट्र सिद्धात सिद्धांत किस ने दिया सावरकर ने या फिर जिन्ना ने, जहां एक ख़ास विचारधारा प्रभावित लोग ये कहते हैं कि दो राष्ट्र के सिद्धांत जिन्ना ने दिया वहीं दूसरे विचारधारा से प्रभावित लोग इसके लिए जिम्मेदार जिन्ना को मानते हैं। आज यहीं समझने का प्रयास करेंगे कि असल में इसके जिम्मेदार कौन है सावरकर या फिर जिन्ना आखिर कौन था दो राष्ट्र के सिद्धात (two nation theory) जन्मदाता, आज हम इतिहास के पन्नों को पलटेंगे और सच जानें का प्रयास करेंगे।। इसके लिए हमें इतिहास के कुछ पुस्तकों के पन्नों पलटने पड़े।

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अक्सर ही कई नेता ये आरोप लगाते है कि दो राष्ट्र सिद्धांत के जनक वीर सावरकर है, लेकिन इतिहास पन्ने पलटते तो वास्तविकता कुछ और ही है। असल में दो राष्ट्र के सिद्धांत वीर सावरकर नहीं है। आप पुछेंगे कि फिर कौन है ये हम आपको आगे बताएंगे कि दो राष्ट्र सिद्धांत कौन है।‌

अक्तूबर, 1906 में लंदन में एक ठंडी शाम चितपावन ब्राह्मण विनायक दामोदर सावरकर इंडिया हाउज़ के अपने कमरे में झींगे यानी ‘प्रॉन’ तल रहे थे।

सावरकर ने उस दिन एक गुजराती वैश्य को अपने यहाँ खाने पर बुला रखा था जो दक्षिण अफ़्रीका में रह रहे भारतीयों के साथ हो रहे अन्याय के प्रति दुनिया का ध्यान आकृष्ट कराने लंदन आए हुए थे। वैसे तो नाम बताने का आवश्कता नहीं क्योंकि आप समझ ही गये हम किनका जिक्र कर रहे हैं। वैसे उनका नाम था मोहनदास करमचंद गांधी गाँधी सावरकर से कह रहे थे कि अंग्रेज़ों के विरूद्ध उनकी रणनीति ज़रूरत से अधिक आक्रामक है‌ सावरकर ने उन्हें बीच में टोकते हुए कहा था, “चलिए पहले खाना खाइए।

बहुचर्चित पुस्तक ‘द आरएसएस-आइकॉन्स ऑफ़ द इंडियन राइट’ लिखने वाले नीलांजन मुखोपाध्याय बताते हैं।‌उस समय गांधी महात्मा नहीं थे। केवल मोहनदास करमचंद गाँधी थे। तब तक भारत उनकी कर्म भूमि भी नहीं बनी थी।

जब सावरकर ने गांधी को खाने की दावत दी तो गांधीजी ने ये कह कर माफ़ी माँग ली कि वो न तो गोश्त खाते हैं और न मछली।‌ बल्कि सावरकर ने उनका मज़ाक भी उड़ाया कि कोई कैसे बिना गोश्त खाए शक्तिशाली अंग्रेज़ो को चुनौती दे सकता है? उस रात गाँधीजी सावरकर के कमरे से अपने सत्याग्रह आंदोलन के लिए उनका समर्थन लिए आए थे लेकिन वो बिना खाएं ख़ाली पेट बाहर निकले थे.” कि सावरकर और गांधी में कितना फर्क था।

सावरकर भारत के स्वतंत्रता संग्राम की ऐसी शख्सियत हैं जो एक तबके के लिए पूजनीय रहे तो दूसरे के लिए अछूत।‌ हिंदू राष्ट्रवाद को परिभाषित करनेवाले और उसे दार्शनिक आधार देनेवाले सावरकर उस आरएसएस के लिए हमेशा प्रेरणास्रोत रहे जिसकी सदस्यता उन्होंने कभी लिया ही नहीं।।

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सावरकर पर रह-रहकर विवाद होते रहते हैं।‌कभी संसद में उनका तैलचित्र लगाने पर सावरकर के विरोधियों ने आपत्ति जताई तो कभी अंडमान निकोबार द्वीपसमूह की राजधानी में स्थित हवाई अड्डे को सावरकर का नाम देने पर हंगामा। स्कूल
सिलेबस में भी सावरकर को लेकर कभी कुछ घटाया गया कभी बढ़ाया गया। असल में सावरकर की कहानी क्या है वो फिर कभी लेकर आएंगे।।

लेकिन आज का हमारा विषय में है कि गौरतलब है कि द्विराष्ट्र के सिद्धांत (two nation theory) के आधार पर ही मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की मांग की थी और भारतीय नेतृत्व ने इसे हमेशा ही नकारा था। ये बात सच है कि जिन्ना और उनके सहयोगी द्विराष्ट्र के सिद्धांत का जहर भारतीय समाज में फैलाने और देश के विभाजन हेतु अवश्य ही उत्तरदायी हैं।

असल में हिंदू राष्ट्रवादियों ने सावरकर से भी पहले इस विचार को खोजा और फैलाया था।‌सावरकर तो इस सिलसिले की एक कड़ी भर थे।‌ राजनीति को एक तरफ छोड़ दें तो इतिहास के पन्नों पर वो सब दस्तावेज़ बनकर सुरक्षित है कि कैसे पाकिस्तान बनाने का इच्छा रखनेवाले अलगाववादियों ने इस सिद्धांत को हिंदू राष्ट्रवादियों से उधार लिया‌‌।

राजनारायण बसु और नभा गोपाल मित्रा ने की शुरूआत श्री अरबिंदो घोष के नाना राजनारायण बसु (1826-1899)  और उनके दोस्त नभा गोपाल मित्रा (1840-1894) ने जो कुछ किया वो हिंदू राष्ट्रवाद की शुरूआत कही जा सकती है। मित्रा के विचार तो बेहद ही आक्रामक थे। उनका विचार था कि राष्ट्रवाद के लिए एकता ही कसौटी है और हिंदुओं के लिए राष्ट्रीय एकता का आधार हिंदू धर्म होना चाहिए। मित्रा का कहना था कि हिंदू राष्ट्र का बनना हिंदुओं की नियति है।

श्री अरबिंदो घोष के नाना राजनारायण बसु द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत देनेवालों से गहरे जुड़े थे, वो हिंदू मेला के भी जनक थे जो बंगाल में काफी अधिक प्रसिद्ध हुआ और वो बंगाली वर्ष के अंतिम दिन लगता था। ये मेला 1867 से 1880 तक लगता रहा। उन्होंने एक सोसायटी भी स्थापित की जो हिंदुओं के बीच काम करती थी जो स्थानीय हिन्दू प्रबुद्ध वर्गों में हिंदू श्रेष्ठता का प्रचार करती थी‌।

इतिहासकार शम्सुल इस्लाम के मुताबिक मित्रा का संगठन ऐसी बैठकें आयोजित करता था। जिसमें दावे किए जाते थे कि अपनी जातिवादी व्यवस्था के बावजूद सनातन हिन्दू धर्म एक उच्च स्तरीय आदर्श सामाजिक व्यवस्था प्रस्तुत करता है। जिस तक ईसाई व इस्लामी सभ्यताएं कभी नहीं पहुंच पाईं। वो महा-हिंदू समिति की परिकल्पना करनेवाले पहले शख्स थे‌। उन्होंने भारत धर्म महामंडल स्थापित करने में सहायता की, जो बाद में हिंदू महासभा बन गई। उनका भरोसा था कि इस संस्था के माध्यम से हिंदू भारत में आर्य राष्ट्र की स्थापना करने में समर्थ हो जाएंगे। उन्होंने यह कल्पना भी कर ली थी कि एक शक्तिशाली हिंदू राष्ट्र का उदय हो रहा है।

जिसका आधिपत्य न केवल पूरे भारत पर बल्कि पूरे विश्व पर होगा। उन्होंने तो यह तक देख लिया कि, “सर्वश्रेष्ठ व पराक्रमी हिंदू राष्ट्र नींद से जाग गया है और आध्यात्मिक बल के साथ विकास की और बढ़ रहा है। मैं देखता हूं कि फिर से जागृत यह राष्ट्र अपने ज्ञान, आध्यात्मिकता और संस्कृति के आलोक से संसार को दोबारा प्रकाशमान कर रहा है। हिंदू राष्ट्र की प्रभुता एक बार फिर सारे संसार में स्थापित हो रही है।

इतिहासकार आरसी मजूमदार का कहना था कि नभा गोपाल ने जिन्नाह के दो कौमी नजरिये को आधी सदी से भी पहले प्रस्तुत कर दिया था। नभा गोपाल मित्रा (1840-1894) ने बंगाल में हिंदू श्रेष्ठता से जुड़े विमर्श को खूब फैलाया था।

भाई परमानंद ने छेड़ा था आक्रामक अभियान

 हिंदू राष्ट्रवाद को मज़बूत करने में आर्य समाज की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी। जो कि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में गहरी हुई। उसमें भाई परमानंद (1874-1947) का भी योगदान है। वो बड़ी मात्रा में इस्लाम विरोधी लेखन करते थे‌‌। इसमें वो ये भी दोहराते थे कि भारत हिंदुओं की भूमि है जहां से मुस्लिमों को निकाल देना चाहिए।

भाई परमानंद ने यहां तक कहा था कि हिंदू धर्म को मानने वाले और इस्लाम भारत में दो अलग-अलग जन-समुदाय हैं, क्योंकि मुसलमान जिस मजहब को मानते हैं, वह अरब देश से निकला है. भाई परमानंद ने विशेष रूप से उर्दू में ऐसा लोकप्रिय साहित्य लिखा जिसमें मुख्य रूप से कहा जाता था कि हिंदू ही भारत की सच्ची संतान हैं और मुसलमान बाहरी लोग हैं‌।

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भाई परमानंद ने मुस्लिम विरोधी साहित्य लिखकर तत्कालीन हिंदू रुझान को खूब मज़बूत किया

वो इतने भर पर नहीं रुके बल्कि जनसंख्या के ट्रांसफर को लेकर भी उनकी सोच साफ थी। उन्होंने अपनी आत्मकथा में एक योजना तक प्रस्तुत की थी।‌ उसके अनुसार- सिंध के बाद की सरहद को अफगानिस्तान से मिला दिया जाए, जिसमें उत्तर-पश्चिमी सीमावर्ती इलाकों को शामिल कर एक महान मुस्लिम राज्य स्थापित कर लें। उस
क्षेत्रो के हिंदुओं को वहां से निकल जाना चाहिए। इसी तरह देश के अन्य भागों में बसे मुसलमानों को वहां से निकल कर इस नई स्थान पर बस जाना चाहिए।

लाला लाजपत राय के लेखों में भी झलक

 द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को पुष्ट करने का काम एकाध स्थान लाला लाजपत राय ने भी किया। वो हिंदू महासभा, कांग्रेस और आर्य समाज के एक साथ नेता थे। उन्होंने तीस और चालीस के दशक से पहले जब पाकिस्तान की अवधारणा कागजों से निकलकर ज़मीन पर सशक्त हो रही थी उससे पहले ही जो कुछ लिखा वो साफ इशारा करता है कि खुद वो दो राष्ट्र के सिद्धांत में भरोसा करते थे। साल 1899 में लाला जी ने हिंदुस्तान रिव्यू नामक पत्रिका में एक आलेख लिखा और कहा कि हिंदू अपने-आप में एक राष्ट्र हैं क्योंकि उनके पास अपना सब कुछ है।

लाला लाजपत राय

1924 में उन्होंने लिखा- मेरी योजना के मुताबिक मुसलमानों को चार राज्य- पठानों का उत्तर-पश्चिमी भाग, पश्चिमी पंजाब, सिंध और पूर्वी बंगाल मिलेंगे। अगर किसी दीगर हिस्से में मुसलमान इतने अधिक हों कि एक राज्य का गठन किया जा सके तो उसे भी यही शक्ल दी जाए। लेकिन इतना बहुत अच्छे से समझ लिया जाना चाहिए कि यह एक संयुक्त भारत यानी यूनाइटेड इंडिया नहीं होगा। इसका मतलब होगा भारत का हिंदू इंडिया और मुस्लिम इंडिया में स्पष्ट विभाजन है।

मुसोलिनी से मुलाकात करनेवाले मुंजे भी कर चुके थे घोषणा 

इस करी में एक प्रमुख नाम डॉ बीएस मुंजे का भी है जिनकी राजनीतिक शिक्षादीक्षा कांग्रेस में हुई लेकिन कालांतर में वो हिंदू महासभा से जुड़े और आरएसएस के भी प्रेरणास्रोत बने। डॉ मुंजे ने 1923 में अवध हिंदू महासभा के तीसरे अधिवेशन में बोले थे कि जैसे इंग्लैंड अंग्रेज़ों का, फ्रांस फ्रांसीसियों का तथा जर्मनी जर्मन नागरिकों का है, वैसे ही भारत हिंदुओं का है। अगर हिंदू संगठित हो जाते हैं तो वे अंग्रेज़ों और उनके पिट्ठुओं, मुसलमानों को वश में कर सकते हैं। अब के बाद हिन्दू अपना संसार बनाएंगे और शुद्धि तथा संगठन के दुबारा फले-फूलेंगे।

गदर पार्टी के लाला हरदयाल भी इसी कड़ी में शामिल हो गये। लाला हरदयाल (1884-1938) का भी है। वो विदेश से गदर पार्टी संचालित करते थे। उनका हिंदूवादी रुझान कई लेखों से स्पष्ट होता है। 1925 में उन्होंने भारत में ना केवल अलग हिंदू नेशन की बात कही बल्कि अफगानिस्तान के मुसलमानों को हिंदू बनाए जाने की सलाह भी दे डाली।

सबरंग में लाल हरदयाल का एक महत्वपूर्ण वक्तव्य छपा है जो कानपुर से प्रकाशित ‘प्रताप’ में 1925 में छपा था। उन्होंने तब जो लिखा वो साफ-साफ वही एजेंडा है जो मुस्लिम लीग का था।

मैं यह घोषणा करता हूं कि हिंदुस्तान और पंजाब की हिंदू नस्ल का भविष्य इन चार स्तंभों पर आधारित है।

1. हिंदू संगठन 

2. हिंदू राज  

3. मुसलमानों की शुद्धि तथा

  4. अफगानिस्तान व सीमांत क्षेत्रों की विजय और शुद्धि

हिंदू राष्ट्र जब तक यह चारों काम नहीं करता तो हमारे बच्चों और उनकी बाद की नस्लों तथा हिंदू नस्ल सदैव खतरे में रहेंगे, इनकी सुरक्षा असंभव होगी। हिंदू नस्ल का इतिहास एक ही है और इनकी संस्थाएं एकरूपी हैं। जबकि मुसलमान और ईसाई हिंदुस्तान के प्रभाव से अछूते हैं। वे अपने धर्मों तथा फारसी, अरब व यूरोपियन समाज को प्राथमिकता देते हैं, इसलिए यह बाहरी लोग हैं, इनकी शुद्धि की जाए. अफगानिस्तान और पहाड़ी क्षेत्र पहले भारत के हिस्से थे।‌‌जो आज इस्लाम के प्रभाव में हैं। इसलिए अफगानिस्तान और आसपास के पहाड़ी क्षेत्रों में भी हिंदू राज होना चाहिए, जैसा नेपाल में है। इसके बगैर स्वराज की बात व्यक्त है।

गदर आंदोलन से जुड़े लाला हरदयाल

काफी दिनों के बाद विनायक दामोदर सावरकर इसी सिलसिले को जाने-अनजाने में विनायक दामोदर सावरकर ने आगे बढ़ाया‌। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘हिंदुत्व’ और ‘हिंदुत्व के पंचप्राण’ में विस्तार से द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत में व्याख्या कर दी है। हिंदुत्व’ जैसी पुस्तक तो वो अंग्रेज़ों की कैद में रहकर लिख रहे थे और उन्हें इसकी पुरी इजाजत भी दी गई थी। वो किताब आज भी हिंदूवादियों के लिए रोडमैप जैसा काम करती है लेकिन उसका निष्कर्ष भाव यही है कि हिंदू अलग राष्ट्र हैं जबकि मुस्लिम अलग।

सन् 1937 में अहमदाबाद में हिंदू महासभा के 19वें वार्षिक अधिवेशन के अध्यक्षीय भाषण में सावरकर ने कहा था- फिलहाल हिंदुस्तान में दो प्रतिद्वंदी राष्ट्र पास-पास रह रहे हैं। कई अपरिपक्व राजनीतिज्ञ यह मानकर गंभीर गलती कर बैठते हैं कि हिंदुस्तान पहले से ही एक सद्भावपूर्ण राष्ट्र के रुप में ढल गया है या सिर्फ हमारी इच्छा होने से ही इस रूप में ढल जाएगा‌‌। इस प्रकार के हमारे नेक नीयत वाले पर लापरवाह दोस्त मात्र सपनों को सच्चाईयों में बदलना चाहते हैं। दृढ़ सच्चाई यह है कि तथाकथित सांप्रदायिक सवाल औऱ कुछ नहीं बल्कि सैकड़ों सालों से हिंदू और मुसलमान के बीच सांस्कृतिक, धार्मिक और राष्ट्रीय प्रतिद्वंदिता के नतीजे में हम पहुंचे हैं। आज यह कतई लोग स्वीकार करेंगे। भारत एक एकता में पिरोया हुआ और मिलाजुला राष्ट्र है। बल्कि इसके विपरीत हिंदुस्तान में मुख्यतौर पर दो राष्ट्र हैं- हिंदू और मुसलमान।

इस तरह हम देख सकते हैं कि विनायक दामोदर सावरकर द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को आगे बढ़ाने की श्रृंखला में एक कड़ी भर हैं जो बहुत बाद में सामने आए लेकिन चर्चित इतने ज़रूर हुए कि जिन्ना के अलावा केवल उन्हें ही इस सिद्धांत का जनक माना जाता है। जबकि सच्चाई यह है कि द्विराष्ट्रवाद सिद्धांत जनक वीर सावरकर नहीं है।

इस साफ लगता है कि वीर सावरकर द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत नहीं थे। किसी एक रिपोर्ट पुरा सच बताना कठिन हो जाता है। आज इंटरनेट और किताबों ज़रिए रिसर्च पर ये जानकारी दे रहे हैं। हमें लगता है कि और इतिहास पन्नों को पलटने की आवश्यकता है। इसलिए ये रिपोर्ट आखिरी नहीं है। बल्कि कि हम और भी उस परिस्थिति जुड़ी जानकारी ला सके। लेकिन हम इस दावे के साथ इस रिपोर्ट को समाप्त कर रहे हैं कि वीर सावरकर द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत जनक नहीं थे।

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शशिकांत कुमार युवा लेखक राजनीति, 2024 की रणभूमि पुस्तक के लेखक। पिछले कई चुनावों से लगातार ही सबसे विश्वसनीय विश्लेषक।।।
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