Rajsthan : इन दिनों राजस्थान (Rajsthan} में मृत्युभोज पर एक नयी बहस शुरू हो गया है। असल में 13 दिसम्बर 2023 को राजस्थान पुलिस के एक सोशल मीडिया पोस्ट से ये बहस शुरू हुईं। एक्स/ट्विटर पर मृत्युभोज निवारण अधिनियम 1960 बारे में बताते हुए राजस्थान (Rajsthan} पुलिस ने लिखा है, “मृत्युभोज करना और उसमें शामिल होना कानूनन दंडनीय है। मानवीय दृष्टिकोण से भी यह आयोजन अनुचित है। आइए मिलकर इस कुरूति को समाज से दूर करें, इसका विरोध करें।
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जिसके बाद ही सोशल मीडिया पर एक नयी बहस जन्म ले लिया। जहां पर कुछ लोगों ने इसे प्रतिबंध करना उचित बताया वहीं कुछ लोगों ने इसे अनुचित बताया है। जब भी मृत्युभोज की बात आती तब हमारा समाज दो विचारधाराएं में बंट जाती है। एक विचारधारा वो जो कि ये कहता है कि परंपरा का हिस्सा वहीं दुसरा विचारधारा इसे बस कुरीति बताता है।
मृत्युभोज कुरीति
अब सवाल ये है कि मृत्युभोज कुरीति है, इसपर कानून द्वारा प्रतिबंध लगना चाहिए या मृत्युभोज सामाजिक परंपरा है, समाज तय करे। ये एक ऐसा मामला जिस पर लंबा डिबेट हो सकता है। कई लोग इसे कुरीति मनाते हैं तो कई लोग इसे परंपरा के हिस्सा मानते हैं।। मैंने कुछ रिसर्च किया जिसे अपने शब्दों में लिख रहा हूं। मैं यहां पर एक बात स्पष्ट करता हूं कि ये सभी रिसर्च इंटरनेट के माध्यम से किया गया।
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मृत्युभोज के पिछे मुल उद्देश्य
किसी भी धार्मिक नियमों को कुरीति बता देना उचित नहीं होता है क्योंकि नियमों को हम सब हमेशा अपने अनुसार तोड़ मरोड़ने में स्वयं जिम्मेदार होते हैं। लेकिन अगर हम मृत्युभोज के पीछे का मुल उद्देश्य को समझने प्रयास करें तो इसके पीछे हमारे मनीषियों की सोच कुछ और ही रही है, जिसमें एक खास मनोवैज्ञानिकता भी झलकती है। असल में ये एक तरह की अनूठी व्यवस्था है, जिसे दिखावे के चक्कर में हमने ही विकृत कर दिया है। इसमें ऐसे रहस्य छिपे हैं जिन्हें हम में से कई लोग नहीं जानते। समय के साथ इसमें जो विकृतियां आई, उन्हें हटाकर इसे मूल स्वरूप में देखेंगे तो दस व्यवस्था को पुनः स्थापित करना हमारे लिये फायदेमंद रहेगा।
भारतीय वैदिक परम्परा में सोलह संस्कारों
भारतीय वैदिक परम्परा में सोलह संस्कारों का व्यक्ति के जीवन में खास स्थान है। मृत्यु अर्थात अंतिम संस्कार इन्हीं में से एक है। इसके अंतर्गत मृतक के अग्नि या अंतिम संस्कार के साथ कपाल क्रिया, पिंडदान आदि किया जाता है।मान्यता के अनुसार, तीन या चार दिन बाद शमशान से मृतक की अस्थियों का संचय किया जाता है। सातवें या आठवें दिन इन अस्थियों को गंगा, नर्मदा या अन्य पवित्र नदी में विसर्जित किया जाता है। दसवें दिन घर की सफाई या लिपाई- पुताई की जाती है। इसे दशगात्र के नाम से भी जाना जाता है। इसके बाद एकादशगात्र को पीपल के वृक्ष के नीचे पूजन, पिंडदान व महापात्र को दान आदि किया जाता है। द्वादसगात्र में गंगाजली पूजन होता है। गंगा के पवित्र जल को घर में पूजन होता है। गंगा के पवित्र जल को घर में छिड़का जाता है। अगले दिन त्रयोदशी पर तेरहवीं को ब्राम्हणों, पूज्य जनों, रिश्तेदारों और समाज के
लोगों को सामूहिक रूप से भोजन कराया जाता है। इसे ही मृत्युभोज कहा जाने लगा। लेकिन आज के तारीख़ में ये भोज बहुत अधिक खर्चीला हो गया है जिस कारण से गरीब परिवारों की कमर टूट जाती है और वो कर्ज के बोझ के तलें दब जाते हैं। असल मायने इस समाज में दिखावा परंपरा के कारण ज्यादातर परंपरा समाजिक अभिशाप बन गया है। इसी तर्ज पर मृत्यु भोज का उद्देश्य शुरूआत में काफी अच्छा था लेकिन धीरे-धीरे समाज में दिखावा भावना बढ़ने बाद मृत्यु भोज भी इस समाज के लिए कुरीति बन गया है।
श्री कृष्ण क्यों कहा मृत्यु भोज नहीं खानें के लिए
मृत्युभोज पर भागवान श्री कृष्ण जुड़े एक किस्सा जो कि महाभारत काल जुड़े हैं। ये कहानी तब का जब महाभारत का युद्ध होने को था, अतः में श्री कृष्ण ने दुर्योधन के घर जाकर युद्ध न करने के लिए संधि करने का आग्रह किया। दुर्योधन द्वारा आग्रह ठुकराए जाने पर श्री कृष्ण को कष्ट हुआ और वह चल पड़े, तो दुर्योधन द्वारा श्री कृष्ण से भोजन करने के आग्रह पर कृष्ण ने कहा कि ’’सम्प्रीति भोज्यानि आपदा भोज्यानि वा पुनैः’’ अर्थात जब खिलाने वाले का मन प्रसन्न हो, खाने वाले का मन प्रसन्न हो, तभी भोजन करना चाहिए।