modigovt2024: आरक्षण एक ऐसा विषय जिसने 1990 दौर में इस देश ने जातिय नफ़रत को देखा। उस दौर के सियासत में मंडल-कमंडल नाम पर रक्तपात से लेकर सड़कों पर हिंसक विरोध प्रदर्शन तक देख लिया था। आज 2024 की रणभूमि में एक बार फिर से उसी आरक्षण के मुद्दा को विपक्ष लगातार उठा रहा है। जिस समय देश में मंडल-कमंडल की सियासत शुरू हुई उस दौर में भारत के सियासत में कई क्षेत्रीय दलों का उदय हुआ।
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मोदी सरकार आई तो तीसरी बार आईं तो आरक्षण खत्म
लेकिन आज एक बार फिर से उसी आरक्षण के विषय 2024 की रणभूमि का बड़ा मुद्दा बन चुका है। एक तरफ़ सभी विपक्षी दल एकजुट होकर सत्ता पक्ष पर ये आरोप लगा रहीं हैं कि मौजुदा मोदी सरकार तीसरी बार आई तो इस देश का संविधान और आरक्षण दोनों समाप्त कर देगा वहीं सत्ता पक्ष के तरफ़ कहा जा रहा है कि हमारी सरकार आरक्षण को कभी भी समाप्त नहीं करेंगी। आरक्षण आज के समय में बस एक राजनीति एजेंडा बन चुका है और इस ज्यादा कुछ नहीं।
हम ऐसा इसलिए कह रहे क्योंकि जब संविधान बना था तब ये कहा गया था कि आरक्षण बस 15 सालों के लिए रहेगा लेकिन वहीं आरक्षण आज के समय राजनीति का एक बड़ा मुद्दा बन चुका है। इसी आरक्षण के नाम पर इस देश में कई बार सरकारें बनीं और गिरी भी है।
लेकिन आज चुनावी रणभूमि में एक बार फिर से उसी आरक्षण पर चर्चा चल रहा है तो सवाल बड़ा है कि क्या आरक्षण आजादी के 75 सालों के बाद जरूरी है ज़वाब शाय़द यहीं रहेगा हां। क्योंकि आरक्षण असली उद्देश्य उसे हमारे राजनीति दलों के कारण आजतक पुरा नही सका है, असल मायने आरक्षण इसलिए था कि जिन लोगों के साथ सदियों से जाति के आधार भेदभाव हुआ है और उन्हीं लोगों को समानता लाने के लिए संविधान निर्माताओं ने 15 सालों के लिए आरक्षण लागू किया था।
असल मायने में जिन जातियों को आरक्षण मिला है उस समाज में चंद लोगों को पिढी दर पिढी आरक्षण का लाभ मिलता रहा। हमारे संविधान निर्माताओं जो सोचा था वो नहीं हो सका। जिन वर्गों को आरक्षण दिया गया उसी वर्ग में उन्हीं लोगों में एक ऐसा वर्ग तैयार हो चुका जो कि राजनीति आर्थिक शिक्षा क्षेत्र में सवर्णों के बराबर या फिर उस आगे निकल चुके थें। यूं कहिए कि उनका उत्थान हो चुका था। लेकिन फिर भी वो अपने
आरक्षण का लाभ लेते रहे जिस वजह से आजतक देश उस परिस्थिति में नहीं आया कि हम आरक्षण समाप्त करने पर भी विचार कर सकें। एक बार संघ प्रमुख ने जब कहा था कि आरक्षण का समीक्षा होनी चाहिए उस समय काफी ज्यादा बवाल मचा था और बिहार विधानसभा चुनाव में इसी बयान कारण ही भाजपा का सरकार नहीं बन सका था।
लेकिन ये कड़वा सच है कि अगर आप वाकई चाहते हैं कि जो लोग समाज के अंतिम पंक्ति खड़े हैं उनका उत्थान करना तो आपको आरक्षण की समीक्षा करना पड़ेगा जो कि सुप्रीम कोर्ट कह चुका है। हालांकि ये कड़वा सच है कि वोट बैंक के लालच में कोई भी राजनीति दल ऐसा कदम कभी नहीं उठाएगा।
जब ठाकुर के कुआं जैसे शब्दों का प्रयोग देश के संसद में होता है तो प्रश्न ये है कि क्या वकई देश का सियासत एक बार फिर उसी मोड़ खड़ा हो गया जहां पर आज से कई साल पहले था।
मनोज झा ने कहां था कि ठाकुर के कुआं का शब्द प्रयोग किसी जाति विशेष के लिए नहीं किया था बल्कि कि ठाकुर शब्द प्रयोग प्रतीक चिन्ह तौर किया जा रहा है तो आज दौर में वहीं ठाकुर आरक्षित वर्ग में समृद्ध बन चुकें और कई पीढ़ियों से आरक्षण का लाभ ले रहे वहीं बन चुकें जो कभी इस जातिए भेदभाव शिकार बनें थें और समाजिक राजनीति आर्थिक तौर जिनके साथ न्याय नहीं हो सका।
समाजिक न्याय से परिवारवाद
SC st OBC के उन परिवारों को आरक्षण छोड़ने की आवश्यकता है जो अब ऊपर उठ चुके हैं और उन्होंने आरक्षण का कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि आर्थिक , सरकारी नौकरी, शिक्षा और राजनीति के आधार पर सवर्णों के बराबर है या फिर आगे निकल चुके हैं। ऐसे में उन्हें अब आरक्षण का जरूरत नहीं है। ऐसे लोगों को अपने समाज के निचले स्थल पर जो उनके उत्थान के लिए आरक्षण त्याग कर देना जिससे sc,st और OBC समाज में जो अबतक पिछड़े हुए उनका उत्थान हो सकें लेकिन ऐसा क़दम आरक्षित वर्ग के समृद्ध वर्ग नहीं उठाना चाहते हैं क्योंकि एक बार सरकारी नौकरी या फिर राजनीति तौर सत्ता का सुख किसी भी व्यक्ति मिल जाता है वो व्यक्ति अपना जाति को भुल जाता है। उदाहरण तौर पर आप रामविलास पासवान के परिवार को देख सकते जो कि आएं थें दलितों के उत्थान नाम असल मायने में वो एक परिवार के पार्टी बन चुकें आज भी रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान एक आरक्षित सीट से चुनाव लड़ते हैं जबकि आज एक समय चिराग किसी जरनल सीट से भी चुनाव लड़ सकते और जीत भी सकते और वो जिस आरक्षित सीट लड़ रहे थे वहां किसी सामान्य दलित परिवार के व्यक्ति को भी टिकट दे सकते हैं वैसे चिराग हाल एक बयान दिया था कि समृद्ध दलित परिवारों को आरक्षण छोड़ देना चाहिए।
वही बात करें समाजिक न्याय के झंडा उठाने वाले दो बड़े नेता लालू-मुलायम भी परिवारवाद के राजनीति से
अछुत नहीं रह पाए आज इन पार्टियों को भी इनके बेटे और बेटियां चला रहीं ऐसी परिस्थिति हर उस पार्टी में जो समाजवाद और समाजिक न्याय का झंडा उठा रहे दक्षिण लेकर उत्तर भारत तक जो क्षेत्रियों दल कलतक समाजिक न्याय और समाजवाद के बात करते थे वो सब आज एक परिवार के पार्टी बन चुकें है। हाल में ही मायावती कांशीराम विचारधारा को कुचल कर अपने भाई के बेटे को पार्टी सौंप दिया और अगर यहीं काम कांशीराम किया होता शाय़द मायावती कभी युपी के मुख्यमंत्री नहीं बन सकती थी। यूं कहिए कि जो एक दौर में समाजिक न्याय के बात करते वो सब आज परिवाद में बदल चुकें हैं।
क्या आरक्षण को समाप्त कर देना चाहिए?
मेरा जवाब यहीं होगा कि आरक्षण को समाप्त करने समय अभी नहीं आया ना ही इसे हम समाप्त कर सकते हैं। वज़ह स्पष्ट है कि जो अधिकारी केन्द्र सरकार को चलाते उसमें 90 में से बस तीन अधिकारी OBC समाज से आते हैं इसी तरह जब आप न्याय पालिका जाएंगे तो वहां भी आपको OBC या दलित जज ना के बराबर मिलेगा तो क्या इसे आप समाजिक न्याय कह सकते जवाब शाय़द यहीं होगा कतई नहीं।
जिस प्रकार से इस देश में जजों नियुक्ति कॉलेजियम प्रणाली से किया जाता है उस से परिवारवाद बढ़ावा देना का जरिया कह सकते हैं। अक्सर हम राजनीति परिवारवाद ग़लत खुलकर कहते लेकिन न्यायपालिका के परिवारवाद हम खामोश हो जातें हैं।
आजादी 75 सालों के बाद भी हम जजों नियुक्ति के लिए कोई व्यवस्था तैयार नहीं कर सकते जिससे परिवाद कलंक न्याय के मंदिर पर ना लगें इस विषय गहन चिंतन का आवश्कता है। अंत विश्वविद्यालय का का जिक्र कर ही देता हूं जहां स्थिति भी सामान्य नहीं है क्योंकि वहां पर SC st OBC के प्रोफेसर के ज्यादातर पद खाली पड़े रहते हैं यूं कहिए कि आज दौर में जब आरक्षण समाप्त या रखने के बात हो रही तो हमारे नेताओं समाजिक न्याय के खोखले दावे साबित होती है आज भी वो समाज के उस स्थिति नहीं पहुंच सके कि हम ये कह सकें आरक्षण समाप्त कर दें। बस इन नेताओं ने समाजिक न्याय नाम पर सत्ता लिया और खुद के परिवार के लिए काम किए, ना कि उस वंचित तबके के लिए जो पिछले कई सालों से इन नेताओं में अपने उम्मीदो में देख रहा था। हम ऐसा भी नहीं कहेंगे कि इन नेताओं इस वर्ग के लिए कुछ नहीं बल्कि किया भी लेकिन वक्त के साथ ये नहीं जाना कि कौन से लोग SC st OBC समाज आगे बढ़ चुकें और उन्हें अब आरक्षण का जरूरत नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट और वोट बैंक
यूं कहिए कि जब स्नेहांचल चैरिटेबल ट्रस्ट ने याचिका दाखिल करते हुए हाई कोर्ट को बताया कि राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग (एनसीबीसी) की गाइड लाइन के अनुसार तथा इंदिरा साहनी व राम सिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा आरक्षण की समीक्षा के बारे में कहा गया है।आरक्षण की हर 10 साल में समीक्षा होनी चाहिए। उसके बावजूद इसके बाद आजतक आरक्षण का समीक्षा नहीं हुई है। इसे आप वोट बैंक के राजनीति ही कह सकते हैं जिसमें हर राजनीति दल अपना फायदा देख रहा है। वोट बैंक के लालच में आरक्षित जातियों की संख्या बढ़ाया जा रहा है।