दिल्ली की सियासत का वो खेल, जब तख्त 52 दिनों में हिल गया, शुरू होते ही खत्म हो गई सुषमा स्वराज की सत्ता की कहानी

Shubhra Sharma
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दिल्ली

दिल्ली, 1998। सर्दियों की ठिठुरती रातों के बीच, सत्ता के गलियारों में गर्माहट बढ़ रही थी। चुनावी शोर थम चुका था, लेकिन सियासत की खिचड़ी धीमी आंच पर पक रही थी। भाजपा ने ऐलान किया था – “अब दिल्ली बदलेगी!” पार्टी ने सुषमा स्वराज को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपी। तेज तर्रार, ओजस्वी और अपने दमदार भाषणों से विपक्ष को झुकाने वाली सुषमा, अब दिल्ली के भविष्य का चेहरा थीं।

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लेकिन कहानी में ट्विस्ट वहीं से शुरू हुआ। जब दिल्ली के राजनीतिक आसमान में काले बादल छाने लगे।
कहीं बिजली-पानी की शिकायतें थीं, तो कहीं पार्टी के अंदर ही षड्यंत्र रचे जा रहे थे।

आखिरकार, 52 दिनों के भीतर कुछ ऐसा हुआ जिसने पूरी दिल्ली को हिला दिया।
यह कहानी सत्ता, षड्यंत्र और संघर्ष की है।
यह कहानी है दिल्ली के तख्त की जंग की।
आइए, इस रहस्यमयी घटनाक्रम को विस्तार से जानें।

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सुषमा स्वराज, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की एक प्रमुख नेता, ने 1998 में दिल्ली की मुख्यमंत्री के रूप में पद संभाला। लेकिन उनकी सरकार केवल 52 दिनों तक ही चल पाई। इसके पीछे की कहानी राजनीति, गठबंधन और पार्टी के भीतर के तनाव का एक जटिल मिश्रण है।

1990 के दशक के अंत में, भाजपा भारतीय राजनीति में उभरती ताकत बन गई थी। 1998 में हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव में, भाजपा ने कांग्रेस के खिलाफ जोरदार अभियान चलाया। उस समय, दिल्ली में भाजपा ने मदन लाल खुराना और साहिब सिंह वर्मा के नेतृत्व में मजबूत पकड़ बनाई थी। लेकिन पार्टी के भीतर सत्ता का संघर्ष भी गहराता जा रहा था।

चुनाव के बाद, भाजपा ने सुषमा स्वराज को मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी दी।
सुषमा स्वराज, जो अपनी कुशल वाक्पटुता और तेजतर्रार नेतृत्व के लिए जानी जाती थीं, को यह जिम्मेदारी दी गई कि वे पार्टी को मजबूत करें और जनता का विश्वास जीतें।

सत्ता में आते ही चुनौतियां

सुषमा स्वराज के मुख्यमंत्री बनने के बाद, उनकी सरकार को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा:

  1. आंतरिक कलह:
    भाजपा के भीतर ही गुटबाजी चरम पर थी। मदन लाल खुराना और साहिब सिंह वर्मा के समर्थक सुषमा स्वराज को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। इन गुटों ने पार्टी के भीतर सुषमा के खिलाफ माहौल बनाने का काम किया।
  2. जनता का असंतोष:
    1998 का समय दिल्ली में बिजली और पानी की भारी समस्याओं का था। निजीकरण और महंगाई के कारण लोग भाजपा से नाखुश थे। यह असंतोष सुषमा सरकार पर भारी पड़ने लगा।
  3. कांग्रेस की रणनीति:
    कांग्रेस ने इस समय को अपने लिए एक मौका माना। शीला दीक्षित के नेतृत्व में कांग्रेस ने भाजपा के खिलाफ एकजुट होकर हमले तेज कर दिए।

52 दिनों में सुषमा स्वराज की सरकार क्यों गिरी?

  1. आम चुनाव और भाजपा की हार:
    1998 के दिल्ली विधानसभा चुनाव के तुरंत बाद लोकसभा चुनाव हुए। इसमें भाजपा को हार का सामना करना पड़ा, और कांग्रेस ने बड़ी बढ़त बनाई। इस हार ने भाजपा की दिल्ली सरकार की स्थिति को कमजोर कर दिया।
  2. सुषमा का इस्तीफा:
    जब लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने दिल्ली की सभी 7 सीटों पर जीत दर्ज की, तो भाजपा की स्थिति और भी कमजोर हो गई। यह सुषमा स्वराज के लिए एक बड़ा झटका था।
  3. शीला दीक्षित का उदय:
    सुषमा स्वराज के बाद, शीला दीक्षित और कांग्रेस ने दिल्ली की राजनीति में मजबूती से कदम रखा। शीला दीक्षित ने अगले 15 साल तक दिल्ली पर शासन किया।

राजनीतिक विश्लेषण: सुषमा सरकार की विफलता के कारण

  1. आंतरिक गुटबाजी:
    भाजपा के भीतर एकजुटता की कमी ने सुषमा स्वराज की सरकार को कमजोर कर दिया।
  2. स्थानीय मुद्दों की अनदेखी:
    बिजली, पानी और परिवहन जैसे मुद्दों पर भाजपा की नीतियां जनता को संतुष्ट नहीं कर पाईं।
  3. कांग्रेस की मजबूत रणनीति:
    शीला दीक्षित ने सुषमा स्वराज की कमियों को उजागर करते हुए खुद को एक मजबूत विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया।

सुषमा स्वराज का 52 दिनों का मुख्यमंत्री कार्यकाल भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण अध्याय है। यह घटना दिखाती है कि केवल चुनाव जीतना पर्याप्त नहीं होता, बल्कि सत्ता में बने रहने के लिए ठोस रणनीति और जनता का विश्वास जरूरी है।

हालांकि सुषमा स्वराज ने बाद में राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और विदेश मंत्री के रूप में देश को गौरवान्वित किया, लेकिन उनकी दिल्ली की कहानी यह सिखाती है कि राजनीति में नेतृत्व के साथ-साथ परिस्थितियों को संभालने की कला भी महत्वपूर्ण है।

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