bihar flood history:बिहार हर साल बाढ़ की चपेट में आता है, जिसमें न केवल जान-माल का भारी नुकसान होता है, बल्कि राज्य की अर्थव्यवस्था और विकास पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। हर साल लगभग ₹3,700 करोड़ का नुकसान होता है, जिसमें कृषि, इंफ्रास्ट्रक्चर, और घरों की तबाही शामिल होती है। बिहार की प्रमुख नदियाँ जैसे गंगा, कोसी, बागमती और घाघरा हर साल मानसून के दौरान उफान पर रहती हैं। लेकिन सरकार की स्थायी नींद में बाढ़ हर साल बस एक वार्षिक महोत्सव जैसा हो गया है।
bihar flood history
बाढ़ का इतिहास: “बाढ़ के साथ-साथ घोटालों की बाढ़ भी”
बिहार का बाढ़ से जुड़ा इतिहास काफी पुराना है। राज्य के 38 में से 28 जिले बाढ़ की चपेट में आते हैं। 1954 में सरकार ने बाढ़ नियंत्रण के लिए तटबंधों का निर्माण शुरू किया था, लेकिन ये तटबंध अक्सर खुद ही समस्या बन गए। जब तटबंध टूटते हैं, तो नदियाँ ये कहने पर मजबूर हो जाती हैं – “हम तो बस बह रहे थे, तटबंधों ने हमें रास्ता दिखाया!” कोसी नदी के बदलते प्रवाह के कारण यह क्षेत्र हमेशा से ही खतरे में रहा है। 2008 में कोसी नदी की तटबंध टूटने से विनाशकारी बाढ़ आई थी, जिससे लाखों लोग प्रभावित हुए थे।
“तटबंध या तोड़बंध?”: जब सरकार का हल खुद समस्या बन जाए
तटबंधों का निर्माण बाढ़ को रोकने के लिए किया गया था, लेकिन अब ये खुद बाढ़ का कारण बन गए हैं। हर साल तटबंध टूटते हैं, जिससे बड़ी मात्रा में पानी अचानक गांवों में घुस जाता है। 1954 में बिहार में केवल 160 किमी तटबंध थे, और अब 3,790 किमी से अधिक हैं। तटबंध टूटने से बाढ़ की स्थिति और खराब हो जाती है। एक किसान का व्यंग्यात्मक बयान – “तटबंधों ने हमारी जमीन को तो बचा लिया, पर अब हम उसमें उगाएं क्या, मछली?” – सरकार की नीतियों पर तंज कसता है।
बाढ़ से आर्थिक नुकसान: “नुकसान हमारा, मुनाफ़ा उनका”
बिहार में हर साल बाढ़ से औसतन ₹35 से ₹40 अरब का नुकसान होता है। परंतु इस नुकसान से ज़्यादा चर्चा राहत राशि और घोटालों की होती है। जैसे ही बाढ़ आती है, कुछ अधिकारियों के चेहरे पर चमक आ जाती है, जैसे उन्हें बोनस मिल गया हो। जनता का व्यंग्य: “सरकार बाढ़ रोकने में नाकाम रही, परंतु राहत में सफल हो गई—अपने लिए।”
2019 में राज्य सरकार ने बाढ़ से होने वाले नुकसान का आंकड़ा ₹3764 करोड़ आँका था। यही नहीं, बिहार सरकार बाढ़ राहत के लिए बड़े पैमाने पर बजट आवंटित करती है, परंतु इस बजट का प्रभावी उपयोग हमेशा संदेह के घेरे में रहता है। जैसे 2021 में बिहार ने बाढ़ और अन्य प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए ₹87.32 अरब का बजट तय किया था, जिसमें से एक बड़ी राशि कोविड-19 टीकाकरण और अन्य आपातकालीन सेवाओं के लिए भी डायवर्ट की गई।
बाढ़ राहत और घोटाले: “राहत तो आई, पर गलत पते पर”
बाढ़ राहत के नाम पर सरकारें भारी बजट आवंटित करती हैं, परंतु जमीनी स्तर पर राहत सही लोगों तक पहुँच नहीं पाती। जनता का तंज – “हम बाढ़ में बह जाएं, पर नेता जी की कुर्सी बची रहे” – जनता के गुस्से को साफ दर्शाता है। राहत सामग्री का वितरण अक्सर भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है, और पीड़ितों तक पहुँचने से पहले ही लुप्त हो जाता है। बाढ़ पीड़ितों की हालत देखकर सरकार की योजनाएँ इस सवाल को जन्म देती हैं – “राहत का बजट कहाँ गया?”बिहार में बाढ़ राहत कार्यक्रमों में कई घोटालों की खबरें आती रहती हैं। बाढ़ राहत के नाम पर सरकारें भारी बजट आवंटित करती हैं, परंतु जमीनी स्तर पर राहत सही लोगों तक पहुँच नहीं पाती। उदाहरण के लिए, 2020 में सरकार ने प्रत्येक बाढ़ पीड़ित परिवार को ₹6000 की राहत राशि देने का वादा किया था, परंतु कई परिवारों को समय पर यह सहायता नहीं मिल पाई। 2017 में, राज्य सरकार ने राहत शिविरों की जगह “कम्युनिटी किचन” की अवधारणा अपनाई थी, ताकि राहत वितरण में कम खर्च हो सके। परंतु इस योजना के तहत भी कई बार राहत सामग्री बाढ़ पीड़ितों तक नहीं पहुँच पाती।
बाढ़ का प्रभाव: “किसानों की फसल गई, नेता जी का चुनावी मुद्दा आया”
बाढ़ न केवल जनजीवन को अस्त-व्यस्त करती है, बल्कि इसका गहरा असर कृषि पर पड़ता है। लाखों हेक्टेयर भूमि हर साल बाढ़ की चपेट में आती है, जिससे फसलें नष्ट हो जाती हैं। लेकिन यह नुकसान सरकार के लिए अगले चुनाव का मुद्दा बन जाता है। बाढ़ पीड़ितों का कहना है – “हमारी फसलें गईं, पर नेता जी की उम्मीदें बढ़ गईं।” 2020 में लगभग 15 लाख हेक्टेयर जमीन प्रभावित हुई थी, और लाखों किसान सड़क पर आ गए थे।
“राहत का तोहफा या चुनावी लॉलीपॉप?”: सरकारी योजनाओं पर सवाल
हर साल बाढ़ की समस्या होती है, फिर भी सरकार की तैयारी नदारद रहती है। लोग अपने गांव छोड़ने पर मजबूर होते हैं, और राहत शिविरों में भी हालात दयनीय होते हैं। जनता का व्यंग्यात्मक सवाल – “बाढ़ हर साल आती है, पर राहत कब आएगी?” – सरकार की नीतियों की पोल खोलता है।