बिहार की राजनीति हमेशा से अप्रत्याशित मोड़ों और नए समीकरणों के लिए जानी जाती रही है। लोकसभा चुनाव 2024 के बाद से ही राज्य की सियासत में पप्पू यादव का नाम लगातार सुर्खियों में बना हुआ है। कभी कांग्रेस के साथ खड़े दिखाई देते हैं तो कभी राजद के विरोध में। लेकिन अब हालात बदलते नज़र आ रहे हैं। कांग्रेस, जिसने कभी उन्हें अपने मंच पर जगह नहीं दी, अब दिल्ली में होने वाली अपनी अहम रणनीतिक बैठकों में उन्हें बुला रही है। ऐसे में बड़ा सवाल उठता है — आखिर क्यों कांग्रेस को अचानक पप्पू यादव की ज़रूरत महसूस होने लगी? और क्या यह तेजस्वी यादव के लिए किसी बड़े खतरे की घंटी है?
राहुल गांधी के मंच से दूर, लेकिन दिल्ली की बैठक में शामिल
कुछ ही दिन पहले ‘वोटर अधिकार यात्रा’ के समापन के मौके पर पटना में राहुल गांधी और तेजस्वी यादव मंच पर मौजूद थे। लेकिन उसी मंच पर पप्पू यादव को चढ़ने की इजाज़त नहीं दी गई। यही पप्पू यादव जब कांग्रेस की दिल्ली बैठक में शामिल दिखे, तो यह राजनीति का नया संकेत माना गया। वे तकनीकी रूप से कांग्रेस के सदस्य भी नहीं हैं, इसके बावजूद हाई लेवल मीटिंग में उनकी मौजूदगी कई सवाल खड़े करती है।
कांग्रेस ने यह कदम क्यों उठाया? जानकार मानते हैं कि यह तेजस्वी यादव पर दबाव बनाने की रणनीति है। सीमांचल और कोसी इलाकों में पप्पू यादव का मजबूत जनाधार है। अगर कांग्रेस उन्हें अपने साथ खड़ा दिखाती है तो राजद को सीटों की साझेदारी में झुकना पड़ सकता है।
पप्पू यादव और कांग्रेस का उलझा रिश्ता
कांग्रेस और पप्पू यादव का रिश्ता हमेशा से उतार-चढ़ाव वाला रहा है। मार्च 2024 में जब उनकी पार्टी का कांग्रेस में विलय हुआ, तो दिल्ली में बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस कर उनका स्वागत किया गया। उस समय पप्पू यादव और उनके बेटे ने कांग्रेस की सदस्यता लेने का ऐलान किया था। लेकिन बाद में हालात ऐसे बने कि कांग्रेस ने ही इस सदस्यता को सवालों के घेरे में डाल दिया।
तेजस्वी यादव और राजद का मानना रहा है कि पप्पू यादव जैसे लोकप्रिय नेता उनके लिए भविष्य में बड़ी चुनौती बन सकते हैं। इसी वजह से कांग्रेस और राजद, दोनों ही उन्हें अपने-अपने हिसाब से किनारे करते रहे।
लालू यादव से टकराव और पूर्णिया सीट की राजनीति
कांग्रेस में औपचारिक रूप से शामिल होने से पहले पप्पू यादव ने लालू यादव से मुलाकात की थी। लालू चाहते थे कि वे मधेपुरा से राजद के टिकट पर चुनाव लड़ें। लेकिन पप्पू यादव का ज़ोर था कि वे पूर्णिया से ही मैदान में उतरेंगे। वजह साफ़ थी — 2019 में वे मधेपुरा से हार चुके थे और पूर्णिया को वे अपनी ‘सेफ सीट’ मानते थे।
यहीं से लालू और पप्पू के बीच खटास शुरू हुई। लालू यादव ने सीट बंटवारे में ऐसा प्रबंध किया कि पूर्णिया कांग्रेस के खाते में ही न आए। उन्होंने अपनी ताक़त दिखाते हुए इस सीट पर राजद की दावेदारी पक्की कर दी और बीमा भारती को उम्मीदवार बना दिया। इस तरह पप्पू यादव एक बार फिर बीच मझधार में फंस गए।
कांग्रेस का यू-टर्न
जब पप्पू यादव ने बगावत कर दी और हर हाल में पूर्णिया से चुनाव लड़ने की बात कही, तब राजद ने कांग्रेस से साफ़ रुख अपनाने को कहा। कांग्रेस प्रवक्ताओं ने यहां तक कह दिया कि पप्पू यादव ने पार्टी की सदस्यता औपचारिक रूप से ली ही नहीं है। यहां सवाल यह भी उठा कि जब दिल्ली में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर विलय की घोषणा हुई थी, तो फिर यह इनकार क्यों?
दरअसल कांग्रेस का यह यू-टर्न इस बात का संकेत था कि वह राजद के दबाव में थी। लेकिन अब जब बिहार विधानसभा चुनाव करीब हैं और सीटों को लेकर फिर से पेचीदगियां खड़ी हो रही हैं, कांग्रेस को पप्पू यादव की अहमियत समझ में आने लगी है।
कांग्रेस की नई रणनीति और तेजस्वी की चिंता
कांग्रेस जानती है कि बिहार में अकेले उसके पास बहुत ज़मीन नहीं है। महागठबंधन में राजद का पलड़ा हमेशा भारी रहता है। ऐसे में कांग्रेस पप्पू यादव जैसे नेताओं के सहारे अपनी मोल-भाव करने की ताक़त बढ़ा सकती है। सीमांचल और कोसी क्षेत्र की लगभग दो दर्जन सीटों पर पप्पू यादव का सीधा असर माना जाता है।
अगर कांग्रेस उन्हें अपने साथ रखती है, तो इन इलाकों में सीट शेयरिंग के दौरान वह राजद से कठोर शर्तें रख सकती है। यही बात तेजस्वी यादव के लिए खतरे की घंटी है। क्योंकि अगर पप्पू यादव कांग्रेस के साथ दिखते हैं तो राजद को अपने हिस्से की कई सीटें गंवानी पड़ सकती हैं।
निष्कर्ष
बिहार की राजनीति में पप्पू यादव हमेशा से एक ‘फैक्टर’ रहे हैं। कभी लालू के खिलाफ जाकर चुनाव जीते, तो कभी कांग्रेस के साथ खड़े हुए। वे खुद को जनाधिकार का प्रतीक मानते हैं और यही उनकी ताक़त भी है। कांग्रेस का उन्हें दिल्ली बैठक में बुलाना यह संकेत देता है कि पार्टी अब उन्हें नज़रअंदाज़ नहीं कर सकती।
तेजस्वी यादव के लिए यह स्थिति मुश्किल इसलिए है क्योंकि महागठबंधन में उनकी नेतृत्वकारी भूमिका पक्की मानी जा रही थी। लेकिन कांग्रेस अगर पप्पू यादव को अपनी रणनीति में शामिल करती है, तो न सिर्फ़ सीट बंटवारे पर असर पड़ेगा बल्कि तेजस्वी के राजनीतिक भविष्य पर भी सवाल उठ सकते हैं।
बिहार की राजनीति में अगले कुछ महीनों में जो भी होगा, उसमें पप्पू यादव की भूमिका ‘किंगमेकर’ जैसी दिख रही है। और यही वजह है कि कांग्रेस के लिए वे अचानक से ज़रूरी हो गए हैं, जबकि तेजस्वी यादव के लिए यह एक बड़ी चुनौती का संकेत है।

