आखिर क्यों लालू यादव ने बदल दिया मन? तेज प्रताप से तेजस्वी तक ‘गद्दी’ का सफर

Shubhra Sharma
7 Min Read

बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद यादव का नाम एक ऐसे नेता के रूप में दर्ज है, जिन्होंने अपनी मेहनत और जुबानी जादू से गरीबों का मसीहा बनकर सत्ता हासिल की। लेकिन लालू यादव की सबसे बड़ी चिंता हमेशा यही रही कि उनके बाद पार्टी और राजनीति की बागडोर कौन संभालेगा? लंबे समय तक माना गया कि बड़े बेटे तेज प्रताप यादव उनके असली उत्तराधिकारी होंगे। पर वक्त बदला, हालात बदले और आखिरकार लालू यादव की पसंद छोटे बेटे तेजस्वी यादव बन गए। सवाल यह है कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि बड़े बेटे से गद्दी का ताज छोटे बेटे के सिर सज गया? यही कहानी है इस पूरे सियासी सफर की…


लालू का पहला इरादा – तेज प्रताप को ‘युवराज’ बनाना

90 के दशक के आखिर और 2000 के शुरुआती वर्षों में जब लालू यादव का कद सबसे ऊँचाई पर था, तब उनके बड़े बेटे तेज प्रताप यादव राजनीति में रुचि दिखाने लगे थे। कई मंचों पर उन्हें ‘युवराज’ कहा जाने लगा। राजद की 2001 की ‘देश बचाओ रैली’ में तेज प्रताप को खासतौर पर आगे किया गया था। यहां तक कि 2007 में हुई चेतना रैली में लालू यादव ने दोनों बेटों को क्रिकेटर के रूप में जनता से परिचित कराया, लेकिन राजनीति की तरफ झुकाव तेज प्रताप का ही ज्यादा था।

उस दौर में यह साफ माना जाने लगा कि जब भी मौका आएगा, लालू यादव की गद्दी पर तेज प्रताप ही बैठेंगे।


तेजस्वी की एंट्री – क्रिकेट से पॉलिटिक्स तक

तेजस्वी यादव शुरू में क्रिकेट की दुनिया में व्यस्त थे। दिल्ली डेयरडेविल्स की टीम का हिस्सा भी रहे। लेकिन राजनीति उनके खून में थी, और पिता लालू यादव धीरे-धीरे उन्हें राजनीति की ट्रेनिंग देने लगे। 2010 के विधानसभा चुनाव में लालू यादव को करारी हार मिली, लेकिन इसी दौरान तेजस्वी को राजनीतिक पाठ पढ़ना शुरू हुआ।

12 अक्टूबर 2010 को पटना के गांधी मैदान में लालू यादव की सभा में तेजस्वी ने अपना पहला राजनीतिक भाषण दिया। उन्होंने नीतीश कुमार पर हमला करते हुए कहा कि “केन्द्र बिहार को पैसा देता है लेकिन राज्य सरकार उसका सही इस्तेमाल नहीं कर पाती।” इसी मंच से उन्होंने साफ कहा – “मैं अभी पॉलिटिकल ट्रेनिंग ले रहा हूँ।”


दोनों भाइयों की ‘परिवर्तन रैली’ – औपचारिक लॉन्चिंग

2013 में गांधी मैदान में लालू यादव की ‘परिवर्तन रैली’ हुई। इस मंच पर पहली बार तेज प्रताप और तेजस्वी दोनों औपचारिक रूप से राजनीति में उतारे गए। दोनों ने जनता को प्रणाम किया और आशीर्वाद लिया। रैली का मकसद साफ था – जनता के सामने यह संदेश देना कि लालू यादव के दोनों बेटे अब सियासत में हैं और वे जनता के आशीर्वाद से आगे बढ़ेंगे, सिर्फ वंशवाद से नहीं।

लेकिन यहीं से एक नया मोड़ शुरू हुआ।


तेज प्रताप बनाम तेजस्वी – अलग अंदाज़, अलग सोच

तेज प्रताप का राजनीतिक स्टाइल हमेशा थोड़ा अलग रहा। वे कभी शिवलिंग पर दूध चढ़ाते दिखे, कभी साइकिल से ऑफिस जाते रहे, तो कभी भगवा वस्त्र धारण कर साधु की तरह अवतार लेते रहे। उनकी छवि जनता के बीच एक ‘अनोखे और भावुक नेता’ की बनी।

दूसरी ओर, तेजस्वी का अंदाज़ ज्यादा गंभीर, प्रैक्टिकल और संगठित था। उन्होंने पिताजी की तरह आक्रामक भाषण देना सीखा, विपक्ष पर तंज कसना सीखा और धीरे-धीरे खुद को बिहार की राजनीति का मुख्य चेहरा बना लिया।


नीतीश कुमार का फैक्टर – तेजस्वी की किस्मत खुली

2015 के विधानसभा चुनाव ने सब कुछ बदल दिया। नीतीश कुमार भाजपा से अलग होकर लालू यादव के साथ आ गए। इस गठबंधन ने राजद को नई ताकत दी और तेजस्वी की किस्मत खुल गई।

तेजस्वी न सिर्फ विधायक बने बल्कि उप मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुँच गए। वहीं तेज प्रताप भी मंत्री बने, लेकिन जनता और मीडिया का ध्यान ज्यादातर तेजस्वी की ओर ही गया। यह वही वक्त था जब बिहार की राजनीति में धीरे-धीरे यह मैसेज जाने लगा कि असली उत्तराधिकारी अब तेजस्वी ही हैं।


क्यों बदला लालू यादव का मन?

लालू यादव ने शुरू में तेज प्रताप को ही ‘युवराज’ बनाने की सोची थी। लेकिन तीन बड़े कारणों ने तस्वीर बदल दी:

  1. नेतृत्व क्षमता का फर्क: तेज प्रताप अक्सर बयानबाजी और अजीबोगरीब अंदाज़ के लिए सुर्खियों में रहे। तेजस्वी ने दूसरी ओर गंभीर और ज़िम्मेदार नेता की छवि बनाई।

  2. जनता का रिस्पॉन्स: परिवर्तन रैली और चुनावी मंचों पर जनता का झुकाव तेजस्वी की तरफ ज्यादा दिखा। लोग उनमें लालू यादव का राजनीतिक वारिस देखने लगे।

  3. नीतीश कुमार का साथ: जब तेजस्वी उप मुख्यमंत्री बने तो उन्हें सत्ता चलाने का अनुभव मिला। इससे उनका कद और भी बड़ा हो गया।


लालू यादव का बयान – ‘अभी सीख रहे हैं ये लोग’

23 सितम्बर 2010 को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में लालू यादव ने कहा था – “ये लोग अभी सीख रहे हैं कि पापा कैसे बोलते हैं, कैसे पार्टी को संबोधित करते हैं।” उस समय भी उन्होंने साफ किया था कि उनके बेटे राजनीति सीखने की प्रक्रिया में हैं। हालांकि उस वक्त भी उनकी झलक दिख रही थी कि लालू यादव, तेजस्वी को ज्यादा तवज्जो दे रहे हैं।


जनता की मुहर और राजनीति का भविष्य

तेज प्रताप और तेजस्वी, दोनों को लालू यादव ने जनता के सामने उतारा। लेकिन जनता की नज़र में तेजस्वी ज्यादा परिपक्व और भरोसेमंद साबित हुए। यही कारण है कि आज राजद की असली कमान तेजस्वी यादव के हाथ में मानी जाती है।

लालू यादव भले ही कभी तेज प्रताप को गद्दी सौंपना चाहते थे, लेकिन राजनीति की ज़मीन और जनता की नब्ज़ ने उनके फैसले को बदलवा दिया।


निष्कर्ष – गद्दी की जंग का असली विजेता

बिहार की राजनीति में यह कहानी सिर्फ वंशवाद की नहीं बल्कि नेतृत्व क्षमता और जनता की पसंद की भी है। तेज प्रताप, बड़े बेटे होने के बावजूद राजनीति की मुख्य धारा में पीछे छूट गए, जबकि तेजस्वी छोटे बेटे होकर भी आज राजद का सबसे बड़ा चेहरा बन चुके हैं।

आखिरकार, यह साबित हो गया कि सिर्फ ‘जन्म से बड़ा बेटा’ होना काफी नहीं, बल्कि जनता के बीच स्वीकार्यता और राजनीतिक परिपक्वता ही गद्दी का ताज तय करती है।

Share This Article