तेज प्रताप यादव बिहार की राजनीति हमेशा से ही परिवारवाद, जातीय समीकरण और गठबंधन की राजनीति के इर्द-गिर्द घूमती रही है। लेकिन विधानसभा चुनाव 2025 से पहले हालात अचानक बदलने लगे हैं। राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के बड़े बेटे तेज प्रताप यादव अब अपने भाई तेजस्वी यादव और पार्टी से अलग होकर नई राह पर निकल पड़े हैं।

तेज प्रताप को चुनाव आयोग से ‘ब्लैकबोर्ड’ चुनाव चिन्ह मिल चुका है और यही उनके राजनीतिक भविष्य की नई इबारत लिखने का जरिया बन गया है। दिलचस्प बात यह है कि ब्लैकबोर्ड का चुनाव चिन्ह अपने आप में शिक्षा, सीख और नए सबक की पहचान है। अब सवाल उठता है कि क्या तेज प्रताप वाकई इसी ब्लैकबोर्ड पर अपने भाई तेजस्वी को राजनीति का नया पाठ पढ़ा पाएंगे?
परिवार से दूरी और नई राह
राजद से निष्कासन के बाद तेज प्रताप पूरी तरह अलग-थलग पड़ गए थे। लंबे समय तक उन्हें एक “मनमौजी” और “गंभीरता से दूर” नेता के तौर पर देखा गया। लेकिन जैसे ही उन्होंने अपनी पार्टी जनशक्ति जनता दल (JJD) बनाई और चुनाव चिन्ह हासिल किया, राजनीतिक हलकों में हलचल मच गई।
परिवार से बाहर निकलने के बाद उनके भीतर एक नया आत्मविश्वास भी देखने को मिला है। अब वे सिर्फ लालू प्रसाद यादव के बेटे या तेजस्वी के बड़े भाई भर नहीं रहना चाहते, बल्कि अपनी अलग पहचान बनाना चाहते हैं।
मुद्दों की राजनीति
तेज प्रताप ने अपनी राजनीति की जमीन युवाओं की परेशानियों पर तैयार करने की कोशिश की है। बेरोजगारी, पलायन और शिक्षा जैसे विषयों को उन्होंने चुनावी मुद्दा बनाया है।
बिहार में लाखों नौजवान रोज़गार की तलाश में बाहर जाते हैं। ऐसे में अगर कोई नेता इस दर्द को सही तरीके से उठाता है तो उसे वोटरों का समर्थन मिलना तय है। यही वजह है कि तेज प्रताप बार-बार कह रहे हैं कि युवाओं को सम्मानजनक रोजगार दिलाना उनकी प्राथमिकता होगी।
अगर वे इस एजेंडे को मजबूती से जनता तक पहुंचा पाते हैं तो उनकी छवि एक गंभीर राजनीतिज्ञ के रूप में उभर सकती है।
जातीय समीकरण की चुनौती
बिहार की राजनीति में जातीय समीकरण हमेशा निर्णायक भूमिका निभाते हैं। राजद का आधार मुस्लिम–यादव (एम-वाई) समीकरण रहा है। लेकिन अब जब तेज प्रताप अलग हो गए हैं तो बड़ा सवाल यह है कि यादव वोट बैंक में कितनी सेंध लगा पाएंगे।
तेज प्रताप ने रणनीति बनाते हुए निषाद समुदाय को साधने की कोशिश की है। इस वर्ग पर फिलहाल वीआईपी पार्टी के मुकेश सहनी का प्रभाव है। अगर तेज प्रताप निषादों को जोड़ने में सफल होते हैं तो उनका वोट प्रतिशत काफी बढ़ सकता है।
इसके अलावा, अगर एआईएमआईएम जैसे दलों से उन्हें समर्थन मिलता है तो मुस्लिम वोटों का भी एक हिस्सा उनके पक्ष में आ सकता है। यह सीधा-सीधा राजद के लिए चुनौती होगी।
गठबंधन की नई राजनीति
तेज प्रताप ने अपनी नई पार्टी बनाते समय अकेले चलने का जोखिम नहीं लिया। उन्होंने पाँच छोटे दलों के साथ मिलकर गठबंधन किया और उसका नाम रखा बिहार महागठबंधन।
यह नाम अपने आप में खास है क्योंकि उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर प्रचलित यूपीए या एनडीए जैसी पहचान न अपनाकर “बिहारियत” को केंद्र में रखा। यानी वे यह संदेश देना चाहते हैं कि उनकी राजनीति बिहार और बिहारियों के लिए है, न कि बाहरी दबावों से प्रभावित।
यह रणनीति क्षेत्रीय अस्मिता को मजबूत करती है और संभव है कि इससे ग्रामीण इलाकों में उन्हें अच्छा समर्थन मिले।
जनता को दिया नया संदेश
तेज प्रताप का कहना है कि वे मुख्यमंत्री पद की दौड़ में नहीं हैं। उनके शब्दों में – “पूरा बिहार ही मेरा परिवार है।” यह बयान उनकी राजनीति को अलग पहचान देता है। अक्सर नेता सत्ता की कुर्सी के लिए जद्दोजहद करते हैं, लेकिन तेज प्रताप खुद को “सेवक” और “परिवार का हिस्सा” बताकर भावनात्मक जुड़ाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं।
यह बयान युवाओं और आम जनता के बीच सहानुभूति जगा सकता है, बशर्ते कि उनके काम भी इसी भावना को दर्शाएं।
तेजस्वी और राजद के लिए सिरदर्द
तेज प्रताप की इस नई राजनीति ने सीधे-सीधे तेजस्वी यादव और राजद को चुनौती दी है। अगर यादव वोटों में बंटवारा होता है तो सबसे बड़ा नुकसान राजद को होगा।
राजद के सामने अब दोहरी चुनौती है –
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तेजस्वी को अपने नेतृत्व को और मजबूत साबित करना होगा।
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यादव और अल्पसंख्यक वोट बैंक को टूटने से बचाना होगा।
लालू प्रसाद यादव के लिए भी यह स्थिति कठिन है क्योंकि दोनों बेटे उनके राजनीतिक वारिस रहे हैं। एक को मनाने से दूसरा नाराज हो सकता है। ऐसे में परिवार और पार्टी दोनों के लिए यह मामला पेचीदा हो गया है।
चुनौतियाँ तेज प्रताप के सामने भी
तेज प्रताप के लिए यह सफर आसान नहीं है।
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संगठन की कमी – राजद जैसी जमी-जमाई पार्टी की तुलना में उनका संगठन बेहद कमजोर है। चुनाव प्रचार के लिए बड़ी टीम और संसाधनों की ज़रूरत होगी।
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विश्वसनीयता का सवाल – लोगों को यकीन दिलाना कि वे सिर्फ मनोरंजन करने वाले नेता नहीं बल्कि गंभीर मुद्दों पर काम करने वाले राजनीतिज्ञ हैं।
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समय की कमी – चुनाव में ज्यादा वक्त नहीं है और इतने कम समय में पार्टी को मजबूत करना बेहद कठिन काम है।
संभावित असर
अगर तेज प्रताप अपने मुद्दों पर डटे रहे और कुछ समुदायों को जोड़ने में सफल हो गए तो वे कई सीटों पर किंगमेकर की भूमिका में आ सकते हैं। भले ही वे खुद मुख्यमंत्री न बनें लेकिन गठबंधन की सरकार बनाने में उनकी अहम भूमिका हो सकती है।
दूसरी तरफ, अगर संगठन और वोट बैंक को मजबूत नहीं कर पाए तो उनका नया प्रयोग सिर्फ “परिवार में मतभेद” के तौर पर याद रह जाएगा।
निष्कर्ष
तेज प्रताप यादव ने अपने राजनीतिक जीवन का नया अध्याय शुरू किया है। ब्लैकबोर्ड चुनाव चिन्ह उनके लिए एक प्रतीक है – सीखने, सिखाने और नया इतिहास लिखने का।
अब यह आने वाला विधानसभा चुनाव बताएगा कि यह ब्लैकबोर्ड बिहार की राजनीति में नई दिशा दिखाता है या सिर्फ एक अधूरी कोशिश बनकर रह जाता है।
एक बात तो तय है – तेज प्रताप ने चुनावी मैदान में उतरकर बिहार की राजनीति को और भी रोचक बना दिया है।

